( तर्ज - मेरे मनकी गंगा , तेरे मनकी ० ) '
एकहि मानव है सारा '
ऐसा क्यों नहि हो नारा ?
तोल सके तो तोल ,
मेरी बातें है सही || टेक ||
जैसे मानव को पहचाने
नाम धराकर न्यारे है ।
वैसे देश - विदेश है प्यारे !
धर्मपंथ भी सारे है ॥
यह समझे वहि ज्ञानी ।
उसकी बुद्धी भवानी ।
तोल सके तो तोल ० ॥ १ ॥
एकहि बाप के दोनों बच्चे
लडते है अज्ञानों से |
एकहि गांव के दो मूरख भी ,
कट मरते है प्राणों से ॥
क्या वे होते न्यारे ?
समझ न करके हारे ।
तोल सके तो तोल ० ।। २ ।।
जैसे दो धर्मी भी लडते ,
ईश्वर को दुखवाते है ।
वैसी ही देशों - देशों की
सरकारों की बातें है |
ये बनते अभिमानी ।
करते है मनमानी ।
तोल सके तो तोल ० ॥ ३ ॥
पांचों तत्वों का है घर यह ,
तीन गुणों का ढाँचा |
उसमें रहनेवाला ईश्वर ,
खेले अजब तमाशा
तुकड्या कहता ज्ञानी !
तूने बात पछानी ?
तोल सके तो तोल ० ॥ ४ ॥
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